Sunday 2 October 2016



देखे जो रंग ज़माने के
अपनों के बेगानों के
इंद्रधनुष ज़िन्दगी का
सुर्ख़ स्याह हो गया।

खोली जो किताब
करने को हिसाब
धूमिल ज़िन्दगी का
हर फ़लसफ़ा हो गया।

बैठे जो सोचने
खुद ही को कोसने
सफ़र ज़िन्दगी का
क्यों खफ़ा हो गया।

किससे करें शिक़वा
क्या शिकायत करें
मुज़रिम ज़िन्दगी का
दिल हर दफा हो गया।

बेरुखी की रवायत
गमों की इनायत
चेहरा ज़िन्दगी का
किस कदर सफ़ा हो गया।

©....Kavs"हिन्दुस्तानी"..!!