Monday 27 August 2018



ना शोर ही मचाए, ना ख़ामोश है ज़िन्दगी,
जागती आँखें लिए मदहोश है ज़िन्दगी..

ना खुल के खिलेे, ना उजाट है ज़िन्दगी,
आती-जाती लहरों का चुप्पा घाट है ज़िन्दगी..

ना चाल ही सूझती, ना मात है ज़िन्दगी,
शतरंज की ऐसी एक बिसात है ज़िन्दगी..

ना रईसी की ज़मात, ना फ़ाका है ज़िन्दगी,
दोनों के बीच झूलता एक ख़ाका है ज़िन्दगी..

ना सुकून का जामा, ना क़फ़न है ज़िन्दगी,
किस दौर से गुजर रही कहाँ दफ़न है ज़िन्दगी..

ना कोई हुक्मरां, ना ही हुक़ूमत है ज़िन्दगी,
जाने कहाँ ज़मींदोज़ कहाँ ज़ब्त है ज़िन्दगी..

ना मुहब्बत ही है, ना हिक़ारत है ज़िन्दगी,
जाने किस सोहबत की शरारत है ज़िन्दगी..!!

©....Kavs"हिन्दुस्तानी"..!!

Thursday 23 August 2018



               कामिनी जी ने घर के काम  के लिए कामवाली को रखा। उसके आते ही उन्होने उसे कुछ निर्देश दिए, जैसे -
  'अपनी चप्पल बाहर उतार कर आना, घर के किसी सामान को उनसे पूछे बिना न छूना, प्यास लगे तो अपने हाथ से लेकर ना पिये उनसे मांग ले और पीने के पानी या फिल्टर को तो बिल्कुल न छुये।'

       शांति ने शांति से सुना। बोली मैडम जी आप निश्चिंत रहिये। मैं अपनी चप्पल बाहर उतारूंगी, आप से पूछे बगैर किसी चीज को हाथ नहीं लगाऊंगी और प्यास लगने पर आपसे पानी भी नहीं मांगूंगी। मैं अपने साथ पानी की बड़ी बोतल और अपना टिफिन  लेकर आती हूँ। आपने शायद देखा नहीं वो थैली मैंने बाहर रखी है।

   कामिनी जी ने कहा ठीक है, कभी पानी खत्म हो तो खुद मत लेना। प्रति उत्तर जो मिला कामिनी जी के लिए कल्पनातीत था।

  शांति ने कहा, मैडम जी मैंने कहा ना, मैं आपके घर का पानी नहीं पिऊंगी। जवाब थोड़ा खटका, कामिनी बोली- क्या मतलब है तुम्हारा?

 शांति का जवाब कामिनी के लिए किसी तमाचे से कम ना था।

  मैेडम जी, मेरे पिताजी ने एक बार गांव के कुंए  से बिना पूछे पानी निकाल कर पी लिया था। तब उन्हें बहुत मार पड़ी थी। दूसरे दिन ही उन्हें परिवार सहित गांव से निकाल दिया गया। उन्होने गांव के बाहर आकर कसम ली और अपने परिवार को भी दी कि कभी उनका छुआ पानी और खाना मत खाना जो हमें अछूत मानते हैं, याद रखना वो हमारे लिये अछूत हैं।

 मैडम जी उस दिन से हमारे परिवार में सब अपने काम पर जाते समय अपना खाना पानी लेकर चलते हैं, जिससे उस घर का पानी न पीना पड़े जो हमें अछूत मानते हैं, वो हमारे लिये अछूत  हैं।
       कामिनी निःशब्द, स्तब्ध खड़ी रही।

                         🙏🙏



Wednesday 22 August 2018



बेहताशा भागदौड़, सुख-साधन जुटाने को
तरस गया इंसान, खुद से ही मिल पाने को।

छूटा अपनों का साथ, मन में रह गयी मन की बात
बोझिल हो रहा तन-मन, बीतते जाते दिन और रात।

ठहर मुसाफिर सोच जरा, क्या पा रहा क्या खो रहा
खुशियां लेने निकला था, पर खून के आंसू रो रहा।

पड़ा जो पर्दा आँख पर, उतार दे कर दरकिनार
खोल दे बाहों के पाश, जीवन को तू कर स्वीकार।

सुन सुर हवाओं के, जीवन के नए साज़ पर
लिख ले गीत नये, अपने दिल की आवाज़ पर।

जो बिखर गये समेट उन्हें, बुन सपनों का ताना-बाना,
जीवन में हो हर्ष उल्लास, तो हर पल लागे गीत सुहाना..!!

©....Kavs"हिन्दुस्तानी"..!!



Monday 20 August 2018

 

  एक पान वाला था। जब भी पान खाने जाओ, ऐसा लगता कि वह हमारा ही रास्ता देख रहा हो। हर विषय पर बात करने में उसे बड़ा मज़ा आता। कई बार उसे कहा कि भाई देर हो जाती है, जल्दी पान लगा दिया करो। परन्तु उसकी बात ख़त्म ही नहीं होती।

  एक दिन अचानक कर्म और भाग्य पर बात शुरू हो गई, तक़दीर और तदबीर की। मैंने सोचा आज उसकी फ़िलासफ़ी देख ही लेते हैं।

  मेरा सवाल था, आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से उसके जवाब से मेरे दिमाग़ के जाले साफ़ हो गए।

  कहने लगा आपका किसी बैंक में लॉकर तो होगा? उसकी चाबियाँ ही इस सवाल का जवाब हैं। हर लॉकर की दो चाबियाँ होती हैं, एक आप के पास होती है और एक मैनेजर के पास।

  अपने पास जो चाबी है वह है परिश्रम और मैनेजर के पास वाली भाग्य। जब तक दोनों नहीं लगती ताला नहीं खुल सकता।

 हमें अपनी चाभी भी लगाते रहना चाहिये पता नहीं ऊपर वाला कब अपनी चाभी लगा दे। कहीं ऐसा न हो कि भगवान अपनी भाग्यवाली चाबी लगा रहा हो, हम परिश्रम वाली चाबी न लगा पायें और ताला खुलने से रह जाये।


Sunday 19 August 2018



नियति

मासूमियत से भरा वो चेहरा
झुनझुने की एक झुनझुनाहट पर
दस दस किलोलें भरता
माँ की गोद में..

कि चलो कोई तो है जो जीवन की 
कंटीली राहों से है बेख़बर
मेरे होठों के बीच की रेखा
जो फैल कर मुस्कान बन गयी थी
कुछ सोच कर फिर अपने
दायरों में सिमट गई..

कि कभी तो इसे भी
उन गर्म हवाओं से
दो-चार होना पड़ेगा
जो जीवन की
कंटीली राहों पर चलते हुए
बार-बार उखाड़ेंगी उसके पाँव..

पर फिर भी
थकने की उसे इजाज़त नहीं
क्योंकि चलना उसका नसीब है
किन्कर्तव्यविमूढ़ थी मैं
जो ये भी नहीं कह सकती थी
कि तू चलना मत सीखना
क्योंकि ये तो नियति है ज़िन्दगी की..!!!!

©....Kavs"हिन्दुस्तानी"..!!

Saturday 18 August 2018

                   

     एक बार एक शिव भक्त धनिक शिवालय जाता है।पैरों में महँगे और नये जूते होने पर सोचता है कि क्या करूँ?यदि बाहर उतार कर जाता हूँ तो कोई उठा न ले जाये और अंदर पूजा में मन भी नहीं लगेगा; सारा ध्यान् जूतों पर ही रहेगा। उसे बाहर एक भिखारी बैठा दिखाई देता है। वह धनिक भिखारी से कहता है " भाई मेरे जूतों का ध्यान रखोगे? जब तक मैं पूजा करके वापस न आ जाऊँ" भिखारी हाँ कर देता है। अंदर पूजा करते समय धनिक सोचता है कि " हे प्रभु आपने यह कैसा असंतुलित संसार बनाया है? किसी को इतना धन दिया है कि वह पैरों तक में महँगे जूते पहनता है तो किसी को अपना पेट भरने के लिये भीख तक माँगनी पड़ती है! कितना अच्छा हो कि सभी एक समान हो जायें!!" वह धनिक निश्चय करता है कि वह बाहर आकर भिखारी को 100 का एक नोट देगा।

बाहर आकर वह धनिक देखता है कि वहाँ न तो वह भिखारी है और न ही उसके जूते ही। धनिक ठगा सा रह जाता है। वह कुछ देर भिखारी का इंतजार करता है कि शायद भिखारी किसी काम से कहीं चला गया हो। पर वह नहीं आया। धनिक दुखी मन से नंगे पैर घर के लिये चल देता है। रास्ते में फुटपाथ पर देखता है कि एक आदमी जूते चप्पल बेच रहा है। धनिक चप्पल खरीदने के उद्देश्य से वहाँ पहुँचता है, पर क्या देखता है कि उसके जूते भी वहाँ रखे हैं। जब धनिक दबाव डालकर उससे जूतों के बारे में पूछता हो वह आदमी बताता है कि एक भिखारी उन जूतों को 100 रु. में बेच गया है। धनिक वहीं खड़े होकर कुछ सोचता है और मुस्कराते हुये नंगे पैर ही घर के लिये चल देता है। 

उस दिन धनिक को उसके सवालों के जवाब मिल गये थे समाज में कभी एकरूपता नहीं आ सकती, क्योंकि हमारे कर्म कभी भी एक समान नहीं हो सकते और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन समाज-संसार की सारी विषमतायें समाप्त हो जायेंगी। ईश्वर ने हर एक मनुष्य के भाग्य में लिख दिया है कि किसको कब और क्या और कहाँ मिलेगा। पर यह नहीं लिखा होता है कि वह कैसे मिलेगा। यह हमारे कर्म तय करते हैं। जैसे कि भिखारी के लिये उस दिन तय था कि उसे 100 रु. मिलेंगे, पर कैसे मिलेंगे यह उस भिखारी ने तय किया। 

हमारे कर्म ही हमारा भाग्य, यश, अपयश, लाभ, हानि, जय, पराजय, दुःख, शोक, लोक, परलोक तय करते हैं। हम इसके लिये ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

 🙏🙏



Wednesday 15 August 2018



अपनी मज़बूती पर 
इठलाता बाँध..
भूकम्प, बारिश, या तूफ़ान 
अडिग रहा धरा पर 
रख पैर अंगद समान..
पर क्षमताओं की भी 
होती हैं अपनी सीमाएं..

प्रकृति प्रदत प्रहार
लगातार बारबार ...
कर रहे खोखले
मज़बूती के बंधन 
कर सुनार की तरह 
धीरे-धीरे महिन वार..

वेग चाहे जैसा भी हो
करता है जब स्पर्श ..
भावना को, क्रोध को, 
आंसुओं को या पानी को..
बहा ले जाता है बहुत कुछ 
अपनी तीव्रता के साथ...

मज़बूती बह निकलती है
उस वेग के तूफ़ान में...
और शेष रह जाते हैं 
कुछ अवशेष ...
स्पष्ट करने को सार्थकता 
अपने अस्तित्व की...!!

©....Kavs"हिन्दुस्तानी"..!!

Sunday 12 August 2018


सुनो..!
मैंने..
मन की सिलाईयों पर..
उम्मीदों के रंग-बिरंगे 
फॅंदे डाले हैं ..
मैं बुन रही हूँ 
तुम्हारे लिये ..
प्यार का स्वटेर ..

सूरज की चमकती किरणों से
उकेरूँगी उस पर..
भीगा हुआ-सा चाँद ..
और सीलूँगी उसे पलकों में
अहसासों की मिठास डालकर..

तुम उसमें नहीं, वो फबेगा ..
तुम पर...
क्या कहा..! नाप लूँ एक बार..?
नहीं, नाप की कोई दरकार
नहीं है मुझको..!

क्योंकि जिस तरह तुम्हे आज भी 
अपनी पसंद पर नाज़ है..
वैसे ही मुझे भी है,
अपनी निगाहों पर विश्वास..

क्योंकि म़ैं हूं "तुम्हारी अर्धांगिनी"..!

©....Kavs"हिन्दुस्तानी"..!!

Monday 6 August 2018



जब होता है मन उदास 
और रहना चाहता है शांत ..
जाने क्यों उसी वक़्त 
शुरू होता है कोलाहल 
अंतर्मन में ...

अक्सर मन के कोनों में 
बेहताशा से दौड़ते 
अनगिनत विचार 
इधर से उधर 
और झड़ी सी लग जाती है 
शब्दों की ...

बार-बार, लगातार
टकराते रहते है 
अंतर्मन से
पाने को एक 
निश्चित सा आकार… 

शब्दों की उठापटक
मन की उहापोह 
अकालांत सी तन्हाई 
क्षणों की छटपटाहट 
भला कैसे दे पाए जन्म 
किसी स्थिरता को… 

मस्तिष्क की भट्टी में 
उफनते विचार और शब्द 
भावों की गर्मी पाकर 
स्वतः पिघलने लगते हैं
होने को आज़ाद 
आँखों के कोरों से बहकर 
धीरे धीरे ... !!

©....Kavs "हिन्दुुस्तानी"..!!